Saturday, May 5, 2018

सवर्ण विशेषाधिकारः शमन से बदलाव

- प्रशांत नेमा ( अनुवाद : डॉ संदीप पांडेय)
हम बहुत कम सुनते हैं कि ’सवर्ण हिन्दू को बदलने के लिए कुछ किया जाए।’ -  बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर

’प्रशांत, ईमानदारी से बताता हूं यदि मैं पढ़ाई में अव्वल नहीं होता तो अब तक आत्महत्या कर लिया होता।’ उसके कथन से मेरे शरीर में सिहरन दौड़ गई। वर्षों से उसे जानने के कारण मुझे मालूम था कि यह कोई अतिशयोक्ति नहीं थी और न ही वह नाटक कर रहा था। वह गंभीर था। जैसे मैं आघात से उबरने की कोशिश कर रहा था मुझे दो और चीजों का अहसास हुआ - एक तो मैं खुद औसत छात्र था और फिर भी मैं उसकी स्थिति के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार था। मुझे और जानने की जरूरत थी।

तन्मय और मैं दोपहर के खाने पर बातें कर रहे थे और शब्दों का प्रवाह जारी था। मैंने उसकी पृष्ठभूमि पूछी। उसने मुझे गरिमामय तरीके से लेकिन जज्बात के साथ पूरी चीज बताई। कोई किताब, अभिभाषण या फिल्म से मैं तन्मय को समझने व वह किस चीज का प्रतिनिधित्व करता है के लिए अपने को तैयार नहीं कर सकता था। कोई दूर से देखने वाला सोच सकता था कि हम दो प्रवासी भारतीय आपस में बातें कर रहे हैं किंतु नैतिक या सांख्यिकी की दृष्टि से हमारी बातचीत का विषय का अंदाजा लगाना असंभव था। हमारी पृष्ठभूमियों में गहरा, चौड़ा व द्वेषजनक अंतर था। आखिर मैं सवर्ण हिन्दू था और तन्मय दलित। हम माइक्रोसाॅफ्ट के दो सफल कर्मचारियों का मिलन कैसे हुआ यह तन्मय की एक वंचना व जबरदस्त संघर्ष की और मेरी सुविधाओं से परिपूर्ण और सामान्य क्षमता वाला होने की कहानी है - जो जाति व्यवस्था द्वारा संसाधनों व अवसरों के असमान बंटवारे का अच्छा नमूना है।

तन्मय की कहानी में मेरी रुचि कैसे जगी यह अपने में शैक्षणिक अनुभव है। वर्तमान में जिस मुल्क को मैंने अपनाया हुआ है वहां जो विमर्श का विषय है उसके समानांतर मैंने बड़े होते हुए भारत में जो व्यवस्था देखी थी वह याद आ गई। श्वेत लोगों के विशेषाधिकार को समझ कर, बिना अपनी सुविधाओं के संस्करण को स्वीकार किए हुए, नस्लीय न्याय के बारे में टिप्पणी करना मुश्किल हो गया।

जिन सुविधाओं से मैं सम्पन्न था, और जिनकी वजह से मैं आज जो हूं वह हूं, उसी व्यवस्था की देन है जिसने तन्मय के रास्ते में कदम कदम पर बाधा खड़ा कर आज जो वह है उसे वहां पहुंचने से रोकने का काम किया। जाति व्यवस्था के बारे में लोगों ने सुना है जो व्यवसाय व जन्म के आधार पर भेदभाव की पेचीदी व्यवस्था है जो सहस्त्राब्दियों से हिन्दू या भारतीय समाज की संरचना के मूल में है। हलांकि ज्यादातर लोग उसके बारे में जानते हैं किंतु कम ही उसके स्थाईत्व व करोड़ों लोगों के साथ उसके द्वारा बरती गई क्रूरता के बारे में समझते हैं। इसको समझने का प्रयास करने कर मतलब है अन्धकार के हृदय में प्रवेश करना।

एक निजी यात्रा

यह मेरा सौभाग्य था कि मैं ऐसे घर में पैदा हुआ था जहां का हरेक सदस्य विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त था। हलांकि पारंपरिक लिंग भेद की सोच मौजूद थी इसलिए हमारे परिवार के सभी पुरुष सदस्यों ने शिक्षा के बाद अच्छी नौकरियां प्राप्त कर ली थीं जिससे हम मध्यम वर्गीय सुविधाओं उपभोग कर सकते थे। एक ऐसे देश में जो अंग्रेज़ों की गुलामी से उबर रहा था व गैर बराबरी जिसकी पहचान थी, यह उपलब्धि अनोखी व महत्वपूर्ण थी। हलांकि मेरे पूर्वजों का ताल्लुक व्यापार से था मेरे दादा व नाना दोनों ही शिक्षा के माध्यम से एक नए आजाद व विकासशील देश में अपना योगदान दे रहे थे। जब तक मेरी पीढ़ी बड़ी हुई, मेरे परिवार की मूलभूत भौतिक आवश्यकताएं पूरी हो रही थीं और मेरा बचपन व यौवन सरल व सुविधाओं से आनंदित था।

तन्मय इतना खुशनसीब नहीं था। दण्ड के समान जाति व्यवस्था को झेलता, शिक्षा व सुविधाएं उसके जन्मसिद्ध अधिकार नहीं थे बल्कि उसके हिस्से में कठिनाइयाँ ही थीं। जबकि मेरे परिवार के बालिग सदस्य व्यवसायिक कामों में लगे हुए थे, उसके परिवार के लोग मरे हुए जानवरों के चमड़े निकालते थे। हजारों सालों से उसके पूर्वज इस खतरनाक काम में फंसे हुए थे जिसे कहने को -’ईश्वर ने उनके लिए तय किया था।’ जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी के इस दुष्चक्र को तोड़ना चाहते थे उनके साथ कठोरता से पेश आया जाता था। जब देश आजाद हुआ तो 1947 में उसके दादा व नाना दोनों ही ग्रामीण इलाके में मृत जानवरों का चमड़ा निकालते थे। वे उस समूह का हिस्सा थे जिसे दलित कहते हैं और आज जिसकी जनसंख्या देश में 20 करोड़ है।

दलित समुदाय में रोजगार की सीमित संभावनाएं और उससे जुड़ी गरीबी कोई इत्तेफाक नहीं बल्कि समझ-बूझ कर उनके ऊपर थोपी गई दासता का नतीजा है। इस मानव निर्मित व्यवस्था को बताया गया कि वह हिन्दू धर्म का ही अभिन्न हिस्सा है।
मैंने पहली बार जाति के बारे में आठ वर्ष की उम्र में जाना जब मेरी मां ने बताया कि हम ’बनिया’ जाति के सदस्य हैं। हलांकि मेरी समझ बहुत सीमित थी, लेकिन पौराणिक कथाओं से मुझे जानकारी मिली थी कि बनिया वैश्य नामक जाति की उप-जाति थी, यानी हमारा पारम्परिक व्यवसाय व्यापार था। मुझे दूसरी ऊंची जातियों - ब्राह्मण व क्षत्रीय के बारे में भी पता चला। समूह के रूप में इन्हें सवर्ण कहा जाता है।

मेरे बचपन में मुझे जाति के बारे में ज्यादा सोचना नहीं पड़ा क्योंकि मैं सौभाग्यशाली था कि मैं विविधतापूर्ण वाले शहरी माहौल में बड़ा हुआ जहां सोचने समझने का तरीका आधुनिक हुआ करता था। जैसा मैं बड़ा हुआ मुझे अच्छी तरह याद है कि ऐसा मानता था कि मैं सभी प्रकार की “isms” से मुक्त हूं क्योंकि मेरा दृष्टिकोण तो वैश्विक है। अब सोचता हूं तो पाता हूं कि मैं कितना गलत था। मुझे अपना कोई दोस्त या कोई पारिवारिक मित्र एक भी ऐसा याद नहीं जो दलित रहा हो। हम बंटे हुए समाज में रहते थे और मानते थे कि हमारा नज़रिया वैश्विक है। हम अपनी आधुनिकता से ही आत्ममुग्ध थे।

आदर्श के भोलेपन में हम मानते थे कि जाति प्रथा इतिहास में भले ही मजबूत रही हो किंतु अब तो वह क्षीण हो गई है। यह ठीक है कि ज्यादातर लोग जाति के अंदर ही विवाह करते थे और अंतर्जातिय विवाह करने वालों को समाज के विरोध का सामना करना पड़ता था फिर भी जाति के नाम पर होने वाली क्रूर प्रताड़ना खत्म हो गई थीं। परिवार से ही शुरू करें तो मेरे पिता जी अब व्यापारी नहीं थे बल्कि एक सरकारी संस्थान में वैज्ञानिक थे जो शोध के काम में लगे हुए थे। भारत आधुनिकता की ओर अग्रसर एक प्रगतिशील संविधान वाला देश था जहां नागरिकता के अधिकार भली भांति परिभाषित थे, इसलिए जाति प्रथा के अवशेष बाकी भी थे तो कोई खतरे की बात नहीं थी। अस्पृश्यता मौजूद थी लेकिन अपवाद के रूप में। रोचक यह है कि कई सवर्ण लोगों के अपने समाज के बारे में मेरे जैसे ही विचार हैं। ऐसा माना जाता है कि जो बीत गया सो बीत गया, वर्तमान और भविष्य प्रकाशमान थे।

तन्मय के बचपन का बोध मुझसे बिल्कुल उल्टा था। उसकी अपनी जाति की स्थिति - सवर्ण के बजाए दलित होने से - ने उसे प्रारम्भ से ही आघात दिए। पहला, उसे यह स्पष्ट था कि उसके आस-पास के लोग जिन कामों में लगे हुए थे उससे उसे नफरत होती थी। दूसरे, उसके अपने साथ कई ऐसी घटनाएं हुईं जिसमें उसकी जाति के कारण उसे अपमान झेलना पड़ा। जब तन्मय 8 वर्ष का था तो उसके एक शिक्षक ने कक्षा के सामने कहा कि वह पढ़ाने लायक तो दूर छूने लायक भी नहीं है।

मैं जिस व्यवस्था को खत्म मान कर चल रहा था वह तन्मय के लिए अभिशाप बनी हुई थी और उसकी भविष्य की सम्भावनाओं का गला घोंट रही थी। मेरे लिए जो परिकल्पना की और भूतकाल की बात थी वह उसके लिए वास्तविकता व वर्तमान की बात थी जिससे उसे कोई छूट नहीं थी। जैसा मुझे जीवन के कई दशकों बाद पता चला 75 प्रतिशत दलित छात्र आर्थिक कारणों से अथवा अपने शिक्षकों, सहयोगी छात्रों व अन्य गणमान्य व्यक्तिों का दंश न झेल पाने के कारण हाई स्कूल के पहले ही विद्यालय छोड़ने को मजबूर होते हैं। ये बचपन मेरे बचपन से अलग था जिसमें सामाजिक सीढ़ी पर चढ़ने के लिए शिक्षकों, सहयोगियों का प्रोत्साहन था। इसके अतिरिक्त सोशल नेटवर्किंग यदि कोई चीज है, जो अब बड़ा व्यवसायिक उद्योग है, तो मेरे माथे पर सफलता पहले से लिखी हुई थी।

तन्मय के लिए वंचना और अपमान का सिलसिला जारी रहा। न सिर्फ उसके रिश्तेदार बल्कि आस-पास रहने वाले सारे लोगों के भाग्य में मेहनत करने वाले वे काम जो हेय दृष्टि से देखे जाते हैं थे। वे अर्थव्यवस्था रूपी बर्तन के नीचे का बचा-खुचा खुरच कर गुजारा चलाते थे और छुआछूत का अमानवीय व्यवहार भी सहते थे। इसमें नाली में घुस कर सफाई करने वाले, सभी प्रकार के सफाईकर्मी, पशुओं के साथ काम करने वाले व मृत शरीर को निपटाने वाले शामिल थे। इन कामों के प्रति समाज का नजरिया इस बात से समझा जा सकता है कि इनमें से अधिकांश पेशों के नाम पर आम प्रचलित भाषा में गालियां दी जाती हैं। तन्मय को यह अपमान तो झेलना ही पड़ता था, उसके पास अपनी मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के संसाधन नहीं थे और सवर्णों की दबंगई का शिकार भी होना पड़ता था। वह एक असहाय , तिरस्कृत और निराश बच्चे व किशोर के रूप में बड़ा हुआ।

किताबी ज्ञान बनाम वास्तविकता

ऐसा नहीं था कि बड़े होते हुए मैं छुआछूत की परम्परा से अनभिज्ञ था, मुझे ऐसा लगता था कि वह पहले हुआ करती थी। हमें यह मालूम था कि तन्मय के पूर्वजों के लिए कई सार्वजनिक जगहें प्रतिबंधित थीं, कुछ जगहों पर तो न सिर्फ वे अछूत थे बल्कि लोग उन्हें देखना भी पसंद नहीं करते थे। यदि वे धार्मिक ग्रथों को सुन कर अपने को शिक्षित बनाने का प्रयास करते तो उनके कानों में पिघला सीसा तक डाला जा सकता था। उनके आर्थिक सुधर के सारे रास्ते बंद थे। देश के सभी कोनों में दलितों के साथ अत्याचार होते थे। दलितों के साथ कठोर अन्याय उतने ही कठोर पूर्वानुमान के साथ होता था। जीवन समाप्त करने वाली प्रथाओं को सवर्णों द्वारा संस्कृति के रूप में स्वीकार कर लिया गया था।

हलांकि जाति व्यवस्था के खिलाफ आवाजें उठीं किंतु जब गुलाम भारत ने 20 वीं सदी में प्रवेश किया तो छुआछूत की प्रथा जिंदा और व्यापक रूप से मौजूद थी। यह तो स्वतंत्रता आंदोलन की खमीर थी और तन्मय के आदर्श डाॅ. भीमराव अम्बेडकर, जो आजाद भारत के संविधान के मुख्य निर्माता थे, जिनकी वजह से दलितों को नागरिक अधिकार मिले तथा दुनिया की सबसे बड़ी किसी वंचित वर्ग को प्रोत्साहन देने वाली आरक्षण की व्यवस्था। किंतु जैसा आम तौर पर होता है यह अधिकार कानूनी तौर पर तो हैं लेकिन वास्तविकता में इतने नहीं।

मेरे जैसे सवर्ण के लिए जो अपने अध्ययन व पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने में लगा था, दलितों की स्थिति को लेकर अपनी कल्पना व तन्मय की वास्तविक जिंदगी के बीच के अंतर से अनजान था। मेरे लिए दलित अमूर्त थे लेकिन भारत की प्रगति की पहचान। मेरे अनुभव में छुआछूत का सम्बंध या तो इतिहास की परीक्षा में पूछे जाने वाले पांच नंबर के प्रश्न से था अथवा उनसे जिन मेहनतकशों की वजह से मेरी जिंदगी चलती थी, जिन्हें अपना काम करने के बाद सवर्ण समाज अदृश्य बना देता है।

अछूतों व अन्य के बीच दूरी बनाए रखने के लिए बकायदा तार्किक कारण दिए जाते रहे हैं। उदाहरण के लिए दलितों के पेशे ज्यादातर गंदगी से सम्बंधित हैं - मानव मल का निपटारा, लाशों अथवा मरे जानवरों का निपटारा। समाज में मेरे वर्ग के बच्चों से कहा जाता था कि दलितों के बच्चों के साथ न खेलो क्योंकि वे गंदे होते हैं। धर्मिक दृष्टि से जो अपवित्र माना गया उसे आधुनिक संदर्भ में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल बता दिया गया। यह बात दूसरी है कि सम्पन्न समाज ने कभी भी सफाई एवं सफाई करने वालों की ठीक से व्यवस्था नहीं की क्योंकि उसकी प्राथमिकताएं कुछ और थीं।

दर्दनाक जमीनी हकीकत ने मेरे किताबी ज्ञान अथवा कल्पना को झूठा साबित कर दिया। यह मेरी सम्पन्नता थी जो मुझे दलितों की वास्तविकता के प्रति अंधा बना रही थी जैसे अमरीका में नस्लीय भेदभाव के शिकार लोगों के वास्तविक अनुभव नस्लवाद की सैद्धांतिक समझ से अलग होते हैं।

व्यक्तिगत स्तर पर उपेक्षा के साथ साथ दलितों के साथ संस्थागत भेदभाव मौजूद है। दलितों की बौद्धिक क्षमता, सत्यनिष्ठा व मानवीय संवेदना पर तो सवाल उठाया ही जाता है उनके लिए सामाजिक व आर्थिक किस्म की ढांचागत बाधाएं भी हैं जो जिंदगी के हरेक पड़ाव पर उनके लिए रुकावट के रूप में खड़ी रहती हैं।

मैं इससे अनजान था, तन्मय को नीचा दिखाने से लेकर अत्याचार तक झेलना पड़ा। उसने संघर्ष कर अपना रास्ता बनाया यह उसके सशक्त व्यक्तित्व की पहचान है।

विश्वविद्यालय

उच्च शिक्षा की विशेष परिस्थिति सवर्णों व दलितों में नया भेद पैदा करती है। मैं भी दुष्प्रचार का शिकार हो गया था हलांकि उसकी वजह दलितों के प्रति कोई उपेक्षा की भावना अथवा धर्मिक कट्टरपन नहीं था। भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश हेतु कड़ी प्रतिस्पर्धा और दबंग वर्ग व जातियों द्वारा निरंतर दुष्प्रचार से आरक्षण की व्यवस्था नफरत व विभाजन को बढ़ाने का कारण बनती है। हलांकि यह अमरीका के विश्वविद्यलयों व कार्यस्थलों पर भी दिखाई पड़ता है, किंतु भारत में जो होता है उसके सामने अमरीका में जो होता है वह कुछ भी नहीं है।

भारत के प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेश की प्रकिया अति प्रतिस्पर्धात्मक है। आरक्षण की बदौलत दलित छात्रों का प्रवेश सवर्ण छात्रों की तुलना में कम अंक पर हो जाता है। आरक्षण के पीछे यही सोच है कि दलित छात्र को जिन बाधाओं का सामना करना पड़ता है उसकी वजह से उनके चयन हेतु मानकों में कुछ ढील दी जानी चाहिए। इसके बावजूद उच्च शिक्षा के स्तर पर दलितों का प्रतिनिधित्व नगण्य है जिससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि कमजोर आर्थिक स्थिति, निरंतर तिरस्कार झेलना व सामाजिक अड़चनें उनका रास्ता कितना मुश्किल बना देती हैं और गिने चुने दलित ही इतना आगे निकल पाते हैं।

मेरे जैसे मेहनती छात्र को, जिसे जाति प्रथा की सिर्फ किताबी समझ थी, यह लगता था कि आरक्षण की व्यवस्था बारबरी के सिद्धांत के खिलाफ है। यदि हम बराबरी चाहते हैं तो क्या सभी के लिए मानक एक जैसे नहीं होने चाहिए? यह रुढ़िवादी सोच मुझे तार्किक एवं न्यायपूर्ण लगती थी। यह तो सिर्फ सुविधा सम्पन्न लोग ही कर सकते हैं कि बराबरी की बात तब करते हैं जब अपना हित सधे और सामाजिक न्याय और बराबरी के उन संघर्षों को नजरअंदाज कर मौन रहते हैं जब वे किसी दूसरे के हित में हो।

अन्याय की इस अवधारणा और सामाजिक पूर्वाग्रह के साथ हम बड़े हुए तो विश्वविद्यालय जीवन में सवर्ण व अवर्ण के बीच रेखा स्पष्ट खिंची हुई थी। मैं अफसोस के साथ याद करता हूं कि हम दलित छात्रों को गाली देते थे क्योंकि हमें लगता था कि उनकी वजह से हमारे उनसे ज्यादा काबिल दोस्तों को विश्वविद्यालय में दाखिला नहीं मिला। कुछ सम्पन्न दलित छात्र भी आरक्षण का लाभ उठाते हैं किंतु किसी भी बड़ी व्यवस्था में कुछ तो दुरुपयोग होगा ही। सवर्ण, सम्पन्न और प्रभावशाली लोगों का गठजोड़ सामाजिक या सरकारी व्यवस्था का अपने हित में प्रायः इस्तेमाल करते हुए पाया जाता है लेकिन जैसे ही कोई दूसरा उसका लाभ उठाता है हम उत्तेजित होकर नैतिकता की बातें करने लगते हैं। व्यवस्था को उलट कर हम अपने को ही पीड़ित बताने लगते हैं।

दलितों के प्रति पूर्वाग्रह व नफरत सिर्फ छात्रों तक सीमित नहीं था बल्कि प्राध्यापक व प्रशासनिक अधिकारी भी इसके शिकार थे और वे भी भेदभाव करते थे। इन्होंने दलितों के बारे में यह भ्रम फैलाया कि उन्हें अनुचित लाभ मिलता है जिसका नतीजा होता है दलित छात्रों का अलगाव, अपमान, अन्यायपूर्ण मूल्यांकन, परेशान व प्रताड़ित किया जाना।

दलित छात्र जिन्हें अच्छी जिंदगी जीने का मौका प्राप्त करने के लिए शिक्षा हेतु कड़ा संघर्ष करना पड़ता है टूट जाते हैं और कुछ आत्महत्या भी कर लेते हैं। मीडिया में यह बताया जाता है कि पढ़ाई-लिखाई का दबाव न झेल पाने और काबिलियत में कमी होेने के कारण ऐसा हुआ जबकि अब इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि इन आत्महत्याओं का मुख्य कारण उनके साथ दुव्र्यवहार व उनका उत्पीड़न है। इस प्रक्रिया को ’काबिलियत की हत्या’ या ‘Death of Merit ‘ कहा जाता है। जो उत्कृष्ट प्रतिभा सम्पन्न होते हैं और जिन्होंने कुछ हासिल करने के कोई सपने देखे होते हैं विशेषतौर पर उनके लिए उत्पीड़न व निरंतर दबाव झेलना कठिन हो जाता है और वे आत्महत्या के शिकार हो जाते हैं।

तन्मय

अपने नजरिये में बदलाव के बाद मैं समझ सका हूं कि तन्मय आत्महत्या की बात क्यों करता है। वह जो कठिन रास्ता पार कर आज माइक्रोसाॅफ्ट में एक जाना माना इंजीनियर है तो यह उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि व अपवादस्वरूप है। वह इसके लिए अपनी मां को ज्यादा श्रेय देता है जो खुद को और अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए दृढ़संकल्पित थीं। उसे अपनी मां से व इस बात से ताकत मिली कि वह एक प्रतिभावान छात्र है। आरक्षण की व्यवस्था से उसे यह भरोसा हो गया कि यदि वह पढ़ाई-लिखाई ठीक से करेगा तो उसका दाखिला अच्छे उच्च शिक्षण संस्थान में हो सकता है।

उसकी सफलता के बावजूद उसकी कठिनाइयां कुछ कम नहीं हुईं। स्नातक स्तर की पढ़ाई के बाद भी उसके साथ भेदभाव जारी रहा। एक भले इंसान के बड़े दिल के कारण उसे अपनी आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए तमाम अपमान सहते हुए भी अंदरूनी ताकत मिली।

अंततः उसे अमरीका आने का भी मौका मिल गया और एक जानी मानी कम्पनी में नौकरी भी लग गई। दूसरे लोगों के लिए इस तरह का अवसर सम्पन्नता का द्वार खोलने वाला हो सकता है उसके लिए तो यह एक मुक्ति के मार्ग के समान था।

निष्कर्ष

इसमें कोई दो राय नहीं कि मुझे भी आज जहां हूं वहां पहुचने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ी व चुनौतियों का सामना करना पड़ा, किंतु मेरी जिंदगी सुविधाओं से पूर्ण थी। तन्मय से बात कर मुझे यह समझ आया और यह भी कि दूसरों को अपनी मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए भी समस्याएं झेलनी पड़ती हैं। कई सवर्णों को भी सफलता प्राप्त करने के लिए बाधाओं को पार करना पड़ता है लेकिन दलितों के लिए कठिनाइयां कई गुना और विभिन्न किस्म की होती हैं और उनका सामना करना भी उतना ही चनौतीपूर्ण होता है।

आज जब अमरीका में भी खुला नस्लभेद चल रहा है मैं नस्लवाद की तुलना जातिवाद से कर सकता हूं, यदि उसका महिला विरोधी, या यौनिक पंसद की छूट के खिलाफ विचार या अन्य पूर्वाग्रहों को छोड़ भी दिया जाए तो भी। मुझे अपनी विशेष स्थिति व सुविधाओं की उपलब्धता का अहसास तब हुआ जब मैंने श्वेत लोगों की खास स्थिति के बारे में जाना।

अंत में दलित होने की कठिनाइयां वास्तविक एवं स्पष्ट हैं। तिरस्कार आम बात है। जिंदगियां समाप्त हो जाती हैं। हममें से ज्यादातर अनजान या संवेदनहीन हैं। सरसरी तौर पर भी जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करें तो पाएंगे कि ज्ञान व दस्तावेजीकरण का भंडार है जो बताता है कि दलितों की स्थिति कितनी बुरी है। अतः अनजान होना भी एक सुविधापूर्ण स्थिति है।

तन्मय ने मुझे मेरे बारे में तथा उस समाज के बारें में जिसे मैं सोचता था मैं समझता हूं का बोध कराया। काश मैंने जिंदगी में और पहले किसी तन्मय को पहचान लिया होता। उम्मीद है कि मेरी कहानी से अन्य प्रशांत व तन्मय एक दूसरे से मिल पाएंगे और एक दूसरे के प्रति हमदर्दी के साथ बातें सुनते हुए ऐसे समाज की ओर बढ़ेंगे जिसमें जाति के नाम पर उत्पीड़न को सही अर्थों में इतिहास बनाया जा सके। मेरी उम्मीद है कि सुनने से स्वीकारोक्ति होगी और फिर समाधान निकालने के लिए एक भागीदारी होगी।

तन्मय व प्रशांत अमरीका के सिएटल में इंजीनियर के रूप में काम करते हैं। इस लेख को लिखने में रोमी महाजन व लोरनेट टर्नबुल का भी योगदान है। लेखक को इस ई-मेल पते पर सम्पर्क किया जा सकता है - pnema.contact@gmail.com